लोगों की राय

सामाजिक >> गिरा अनयन नयन बिनु बानी

गिरा अनयन नयन बिनु बानी

बलिवाड कान्ताराव

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1993
पृष्ठ :130
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1334
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

59 पाठक हैं

प्रस्तुत है तेलगू मूल से हिन्दी रूपान्तर...

Gira Anyan Nayan Binu Bani

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

यह उपन्यास एक प्रतिभाशाली अन्धे गायक की कहानी है। कथानायक कान्तम जीवनभर अपनी नेत्रहीनता के कारण समाज में पीड़ित अपमानित और अवशोषित होकर भी अन्त में गायक के रूप में ख्याति प्राप्त करता है।

प्रस्तुति


भारतीय वाङ्मय के संवर्धन में भारतीय ज्ञानपीठ के बहुमुखी प्रयास रहे हैं। एक ओर उसने भारतीय साहित्य की शिखर उपलब्धियों को रेखांकित कर ज्ञानपीठ पुरस्कार एवं मूर्तिदेवी पुरस्कार के माध्यम से साहित्य को समर्पित अग्रणी भारतीय रचनाकारों को सम्मानित किया, इस आशा से कि उन्हें राष्ट्रव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त हो और उनकी श्रेष्ठ कृतियाँ अन्य रचनाकारों के लिए प्रकाशस्तम्भ बनें। दूसरी ओर वह समग्र भारतीय साहित्य में से कालजयी रचनाओं का चयन कर उन्हें हिन्दी के माध्यम से अनेक साहित्य-श्रृंखलाओं ‘भारतीय कवि’ ‘भारतीय उपन्यासकार’, ‘भारतीय कहानीकार’ आदि के अन्तर्गत प्रकाशित कर बृहत्तर पाठक-समुदाय तक ले जाता है ताकि एक भाषा का सर्वोत्कृष्ट साहित्य दूसरी भाषा तक पहुँचे और इस प्रकार विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों एवं प्रबुद्ध पाठकों के मध्य तादात्म्य और परस्पर वैचारिक सम्प्रेषण सम्भव हो सके।
पिछले दो वर्षों में ज्ञानपीठ ने ‘भारतीय उपन्यासकार’ श्रृंखला के अन्तर्गत वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य, आशापूर्णा देवी, कुर्रर्तुल-एन-हैदर, होमन बरगोहाई, राजम कृ़ष्णन, श्री. ना. पेंडसे आशुतोष मुखर्जी और प्रतिभा राय जैसे उपन्यासकारों की कृतियों के हिन्दी रूपान्तर पाठकों को समर्पित किये हैं। तेलुगु के प्रसिद्ध कथाकार बलिवाड कान्ताराव का उपन्यास ‘गिरा अनयन नयन बिनु बानी’ इसी श्रृंखला की एक नयी कड़ी है। यह तेलुगु मूल ‘इदे नरकम् इदे स्वर्गम’ का हिन्दी अनुवाद है। एक प्रतिभाशाली अन्धे गायक की कहानी है यह। कथा-नायक है श्रीकान्तम, जो जीवन भर अपनी नेत्रहीनता के कारण समाज में अपमानित और अवशोषित होकर भी अन्ततः गायक के रूप में ख्याति प्राप्त करता है। साथ ही वह सब गूँगी सुनयना ‘कल्याणी’ (नायिका) को अपनी जीवन-संगिनी के रूप में पाता है तो विधि के इस विधान को देखकर उसे यह लगता है कि वह अब नेत्रहीन नहीं रहा, सुनयन बन गया है।
कान्ताराव जी के इस उपन्यास का हिन्दी अनुवाद डॉ. पाण्डुरंग राव की कलम से हुआ है। उनके प्रति हम आभारी हैं। पाण्डुलिपि के मुद्रण-प्रकाशन में हमारे सहयोगी डॉ. गुलाबचन्द्र जैन ने अपने दायित्व का भली-भाँति निर्वाह किया है। पुस्तक के आवरण-शिल्प के लिए श्री सत्यसेवक मुखर्जी का साधुवाद !
र.श.केलकर, सचिव

आमुख


स्वातन्त्र्योत्तर तेलुगु साहित्य में कहानी और उपन्यास के क्षेत्र को सस्यामल और सुश्यामल बनाने वाले कतिपय उत्कृष्ट कला-कृषकों में श्री बलिवाड कान्ताराव का नाम अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। आज से लगभग सौ वर्ष पहले आधुनिक तेलुगु साहित्य के प्रवर्तक कंदुकूरि वीरेशलिंगम पन्तुलु और चिलकमर्ति लक्ष्मी नरसिंहम् की चित्प्रसूतिका प्रतिभा ने तेलुगु उपन्यास को जन्म दिया था। साहित्य की इस नवल विधा (उपन्यास) को बाद में उन्नव लक्ष्मीनारायण, विश्वनाथ सत्यनारायण और गुडिपाटि वेंकटचलम की त्रिवेणी ने नया आलोक प्रदान किया। फिर पिछले कुछ दशकों से इस क्षेत्र में सार्थक और सक्रिय सहयोग प्रदान करने वाले कोडवटिगंटि कुटुम्बराव, राचकोंड विश्वनाथ शास्त्री, त्रिपुरनेनि गोपीचन्द्र जैसे मनीषियों ने तेलुगु उपन्यास को सच्चे अर्थों में नवला (तेलुगु में उपन्यास को ‘नवला’ कहते हैं) का निखरा हुआ रूप प्रदान किया है। इस प्रकार तीन पीढ़ियों से गुजरती और निखरती चली आने-वाली इस परम्परा को पिछले चालीस वर्षों से चौथी पीढ़ी की निसर्ग स्त्रोतस्विनी की प्रखर किन्तु रमणीय वाणी ने प्रकृष्ट योग प्रदान किया है।

श्री कान्ताराव की साहित्यिक साधना लगभग भारत की राजनीतिक स्वाधीनता के साथ ही आरम्भ हुई है। आपका जन्म सन् 1927 में श्रीकाकुलम जिले के मडपां नामक गाँव में हुआ। आपने प्रारम्भिक शिक्षा विशाखपट्टनम में प्राप्त की। बीस साल की अवस्था में आप कहानियाँ, उपन्यास और नाटक लिखने लगे। चालीस साल की इस अवधि में आपकी ढाई सौ से अधिक कहानियों के अतिरिक्त बीस उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। इसमें से कई रचनाएँ हिन्दी, कन्नड़, पंजाबी, उर्दू, अंग्रेज़ी आदि कई भाषाओं में अनूदित और प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रकृत्या आप निराडम्बर और मितभाषी हैं और यही प्रवृत्ति आपकी रचनाओं में प्रतिबिम्बित मिलती है। वैसे आप बहुत कम लिखते हैं और जब कभी लिखते हैं तो काफी सोच-समझकर सन्तुलित भाषा में गहरे चिन्तन को प्रतिफलित करते हुए। इस प्रवृत्ति के कारण आपको कभी-कभी लेखक की अपेक्षा चिन्तक अधिक कहा जाता है। पर वास्तव में चिन्तन और लेखन का सन्तुलन आपकी साहित्यिक साधना का आधार है।

आपने अपना पहला उपन्यास ‘गोड मीद बोम्स’ (दीवार पर तस्वीर) सन् 1953 में लिखा था। इसमें अपनी साधना के बल पर जीवन में प्रगति करने वाले स्वावलम्बी व्यक्ति की जीवनी चित्रित है। इसके बाद द्वितीय महायुद्ध की विभीषिकाओं से पीड़ित लेखक के हृदय ने ‘दगा पडिन तम्मुडु’ (वंचित अनुज) नामक उपन्यास में अपनी समवेदना बड़ी आत्मीयता से प्रकट की। लेखक का यह दूसरा उपन्यास (1956) तत्कालीन समाज का सच्चा प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है। नेशनल बुक ट्रस्ट ने इस उपन्यास का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराकर प्रकाशित किया। इसके बाद कान्ताराव की लेखनी का कलापक्ष ‘संपंगि’ (चंपक) नामक उपन्यास में कमनीयता की पराकाष्ठा को प्राप्त करता है। इस उपन्यास की भाषा ने उसमें व्यक्त कोमल भावों को इतना मधुर आलोक प्रदान किया कि सारा उपन्यास काव्य का-सा आनन्द देता है। कन्नड़ में इसका अनुवाद भी हो चुका है।

आपकी ‘पुण्यभूमि’ (1967) स्वातन्त्र्योत्तर भारत की गतिविधियों को चित्रित करती है जिसमें आशा निराशा को आच्छादित करती-सी दिखाई देती है। भावुकता और विलासिता में डूबे हुए धनिक वर्ग, ममता के आराधक मध्यम वर्ग और दिलवालों के अन्दर दया का दिया जलानेवाले दलित वर्ग का इस उपन्यास में हृदयग्राही और उत्प्रेरक चित्रण हुआ है।
इस वृहत् उपन्यास के अलावा कान्ताराव ने कई छोटे-छोटे उपन्यास भी लिखे हैं जिनमें ‘अन्नपूर्णा’, ‘मत्स्यगंधी’, ‘मन्नुतिन्न मनिषि’ (वह आदमी जिसने मिट्टी खायी है) और ‘वंशधारण’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
आपका लिखा हुआ उपन्यास ‘नालुगु मंचालु (चार पलंग) धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ है। ‘ईदे दारि’ (यही मार्ग) आपका एक और प्रसिद्ध उपन्यास है। आपके द्वारा लिए गये रेडियो-रूपकों में ‘अडवि मनिषि’ (जंगली) आकाशवाणी के अखिल भारतीय कार्यक्रम में सभी भाषाओं में प्रसारित होकर काफ़ी लोकप्रिय हुआ था।

प्रस्तुत उपन्यास ‘गिरा अनयन नयन बिनु बानी’ (इदे नरकम् इदे स्वर्गम् तेलुगु शीर्षक) लेखक का एक स्पृहणीय कलाप्रयोग है। अपने को जन्मान्ध समझकर एक उपन्यास लिखने की कामना ने लेखक  को इस रचना की ओर प्रेरित किया है। यद्यपि यह एक प्रतिभाशाली अन्धे गायक की आत्म-कहानी है, फिर भी इसमें आनुषंगिक रूप से कई ऐसे पात्रों की सृष्टि हुई है, जो कथानायक से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए कान्तम (कथानायक) के पिता नरसिंहमूर्ति का चित्रण सारे उपन्यास को रम्य आलोक प्रदान करता है। उदात्त पात्रों के साथ शाम्यूल, यमराज, टोपीदास जैसे घृणित पात्र भी इस उपन्यास में पाये जाते हैं। जीवन भर अपनी नेत्रहीनता के कारण समाज में पीड़ित, अपमानित और अवशोषित होकर भी अन्त में गायक के रूप में ख्याति प्राप्त कथा-नायक जब सुलोचना किन्तु वाग्वंचिता मूक कन्या कल्याणी को अपनी जीवन-संगिनी के रूप में पाता है तो वह विधि के विचित्र विधान को देखकर चकित हो जाता है। उसे वाणी का वरदान तो प्राप्त है, पर संसार को साकार बनानेवाले नयनों के आलोक से वह वंचित है। सुन्दर नयनों का आलोक पाकर भी उसे मुखरित करने में असमर्थ कल्याणी के ‘बिनु बानी नयन’ कान्तम की ‘अनयन गिरा को सफल बनाते हैं। लोग कहने लगते हैं कि इनकी सन्तान या तो अन्धी होगी या गूँगी। लेकिन यहाँ भी विधि का विधान पिता की वाणी और माता के नयनों का सार लेकर सन्तान की सृष्टि करता है।

पुत्रोदय के कुछ ही क्षण पूर्व कथानायक के मन में जो व्याकुल संघर्ष पैदा होता है उसमें जीवन की इन्द्रधनुषी छटा का चिन्मय रूप दिखाई देता है। वह कुछ नहीं देखते हुए भी सब कुछ देखता है, सोचता है और समझता है कि यही संसार अपने में स्वर्ग और अपने में नरक है। यह मनुष्य के ऊपर है कि वह उसे किस रूप में देखना चाहे और देखे। लेखक अपनी रचना के माध्यम से यही दृष्टि संसार को प्रदान करना चाहते थे और यह दृष्टि भी हमें किसी दृष्टिहीन व्यक्ति के सहारे मिल जाती है।

सारे उपन्यास में कथानायक का जीवन-संघर्ष कई उपान्यानों के साथ चित्रित है जिनमें आधुनिक जीवन का लगभग हर पहलू किसी-न-किसी रूप में संस्पृष्ट हो चुका है। वस्तुविन्यास, कथनोपकथन और पात्र-सृष्टि में उपन्यास का सर्वतोमुखी सौन्दर्य तो निखर उठा है, पर साथ ही सारी रचना के अन्तर अन्तःसलिला की भाँति जीवन के प्रति ममता या जिजीविषा की भावना प्रमुख रूप से व्यंजित होती है। अपने अन्धे पुत्र में जीवन लालसा का सहज रूप देखकर जिस प्रकार नरसिंहमूर्ति में जिजीविषा का भाव जागरित हुआ है, उसी प्रकार प्रस्तुत रचना किसी भी सहृदय के मन में ममता का भाव जाग्रत कर सकती है।

इस उपन्यास के पीछे एक कहानी भी है। जब श्री कान्ताराव ने यह उपन्यास लिखा था उस समय वे दिल्ली में रहते थे। उपन्यास पूरा होते ही वे मेरे पास आये, कुछ प्रसंग पढ़कर सुनाये भी थे। मुझे उपन्यास अच्छा लगा। उसी समय ‘दक्षिण भारतीय हिन्दी प्रचार सभा’ ने मुझे लिखा था कि तेलुगु का कोई एक ऐसा उपन्यास मैं उनको सुझा दूँ जिसका हिन्दी अनुवाद वे अपने पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर सकें। पर इतिवृत्त ऐसा होना चाहिए कि वह पठनीय और जीवन-दर्शन को समझने में सहायक हो, साथ ही कक्षा में पढ़ने लायक हो। इस पत्र के परिप्रेक्ष्य में श्री कान्ताराव का उपन्यास मुझे विशेष रूप से उपादेय लगा। आराम से पढ़ने के लिए पाण्डुलिपि मेरे पास छोड़कर श्री कान्ताराव अपने घर चले गये। उसके बाद मैंने उसका हिन्दी में अनुवाद करना आरम्भ किया। दिसम्बर का महीना था, पाँच दिन की छुट्टी लेकर अनुवाद का काम मैंने पूरा किया और प्रचार सभा में अनुवाद की पाण्डुलिपि भेज दी। एक-दो महीने में पुस्तक छपकर तैयार हो गई। यब सब कान्ताराव को मालूम नहीं था। लेकिन मालूम होने पर उनके सुखद आश्चर्य हुआ। पर तेलुगु मूल को प्रकाशित कराने की चिन्ता रही। हिन्दी अनुवाद के प्रकाशित होने के बाद मूल उपन्यास के प्रकाशित होने में एक-दो वर्ष लगे गये। हम दोनों की मैत्री का यह एक मंगलमय प्रसंग था कि अनुवाद पहले प्रकाशित हुआ और मूल बाद में।

अब यह उपन्यास ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हो रहा है, इसकी मुझे बड़ी प्रसन्नता है। पूरे बीस वर्ष के बाद जब मैं यह उपन्यास फिर से पढ़ने लगा तो उसकी प्रासंगिकता और रोचकता में मुझे कोई अन्तर नहीं दिखाई दिया। जीवन का सत्य शाश्वत होता है। इसी प्रकार इसे उपन्यास का इतिवृत्त जितना सार्वकालिक है, उतना ही उसका प्रस्तुतीकरण भी।  हिन्दी पाठकों को इसमें आनन्द मिलेगा, यही आशा है।
इस उपन्यास को ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित कराने के लिए ‘दक्षिण भारतीय हिन्दी प्रचार सभा’ ने स्नेह-भाव से जो अनुमति प्रदान की है, उसके लिए मैं व्यक्तिगत रूप से और संस्था के संचालक के रूप में सभा का आभारी हूँ।
नई दिल्ली
11-1-1993
पाण्डुरंग राव

एक


अपने तीस साल के जीवन में मुझे पहले चार साल की कोई घटना याद नहीं है। मेरी माँ कहा करती थी कि उन दिनों मैं खूब रोता था। अपने रोने का कारण न तो किसी ने मुझे बताया और न मैंने उसे जानने की कभी कोशिश की। मेरी वजह से, न मालूम, मेरे माँ-बाँप को कितना दुःख हुआ होगा, कितना रोना पड़ा होगा उनको ! मुझसे पहले उनके तीन लड़के हुए थे। वे बहुत चाहते थे कि अब की बार लड़की हो जाए; पर वैसा नहीं हुआ। चौथी सन्तान के रूप में उन्होंने मुझ जैसा लड़का प्राप्त किया।

अपने रोने की बात मुझे याद नहीं है। मेरी याद ज़्यादा से ज़्यादा उस वक़्त तक जाती है जब मैं सिर्फ़ पाँच साल का था। मुझे याद है कि मैं किसी जानवर की नहीं, बल्कि आदमी की आवाज सुनकर बहुत डरता था। तब से अब तक इन्हीं आवाजों से मैंने इस दुनिया को पहचानने की कोशिश की। देखा जाए तो मेरे अन्दर ऐसी कोई बात नहीं है जो आप लोगों को सुनाने लायक हो। इसीलिए अब तक मैं अपनी कहानी कहने में संकोच कर रहा था।
आप लोग किताबों में जो कहानियाँ पढ़ते हैं, ऐसी किसी कहानी के नायक के लक्षण तो मुझमें नहीं हैं। या फिर मेरे अन्दर की भूख-प्यास ने मेरे हाड़-मांस को चूसकर मुझे निगल लिया हो, ऐसी बात भी नहीं है। मेरी तारीफ़ करने वाला भी तो कोई नहीं है। पर कुछ लोग ज़रूर हैं जो कहते हैं कि अगर इस आदमी के दो आँखें होती तो यह सारे संसार का स्वामी बन जाता।

कभी-कभी मेरी माँ कहा करती थी, ‘‘पता नहीं यह ऐसा क्यों पैदा हुआ है ! बिना किसी प्रयोजन के मानव भी कोई काम नहीं करता। फिर भगवान ऐसा क्यों करेगा ?’’
मुझे आशा थी कि संसार को मेरी आवश्यकता होगी। शायद यह ठीक ही हो। पर कई बार मुझे लाचार होकर यह सोचना पड़ा कि शायद मेरी सारी आशाएँ मुझे धोखा देकर मिट जाएँगी। जनम से अन्धा यह व्यक्ति समाज के लिए भार तो ज़रूर बनेगा। पर मैं यह भी सोचा करता था कि इस समाज के भार को हल्का करने वाला व्यक्ति ही आगे की पीढ़ियों के लिए अपने विचार छोड़कर जा सकता है। इसीलिए मैं अपनी कहानी सुनाने का लोभ अब तब सँजोए बैठा रहा।

तीन साल पहले मैं अपने पिताजी के साथ चिड़ियाघर देखने दिल्ली गया था। वह इतवार का दिन था। वहाँ की हलचल सुनकर मैंने सोचा कि यहाँ कुछ गड़बड़ है। मेरे पिता जी मोर की रूप-रेखा मुझे समझाने लगे तो मैंने मना कर दिया। आवाज़ों को सुनकर सब चीज़ों का अन्दाजा लगाना मुझे अच्छा लगता था। सफ़ेद बाघ को सामने पिंजड़े में देखकर पिता जी ने मुझसे पूछा, ‘‘क्या तुम बता सकते हो, बाघ कैसा होता है ?’’ मैं ध्यान से सुनने लगा, पर उसने कोई आवाज़ नहीं दी। फिर अनुमान लगाकर मैंने कहा, ‘‘कुछ दिन पहले मैंने भेडिये के बच्चे को सहलाकर देखा था न ! बस वैसा ही होगा। बहुत हुआ तो उससे कुछ बड़ा होगा।’’ मेरी इस बात का समर्थन करते हुए पिताजी ने कहा, ‘‘ठीक कहा है। अब यह सचमुच भेड़िये के समान है।’’ मैंने कहा, ‘‘जब आदमी बैठा रहता है तब उसकी सूरत बन्दर की सूरत से मिलती-जुलती है।’’ फिर पिता जी ने पूछा, ‘‘बताओ, यहाँ कितने बन्दर हैं ?’’ आवाज़ें बहुत हो रही थीं। इसलिए मैंने कहा ‘‘होंगे बहुत सारे।’’ उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘बन्दर तो एक ही है। बाक़ी सब उसे देखने के लिए आये हुए लोग हैं।’’

बन्दर की आवाज़ें, शेरों का गर्जन, सिगरेट पीने वाला चिम्पाजी, चिड़ियों की चहचहाहट-सुना था, ये सब कटघरों में बन्द पड़े हैं। इन जानवरों की आवाज़ें हमारी समझ में नहीं आती हैं। इन आवाज़ों के पीछे उनकी खुशी बोल रही है या उनका दर्द ज़ाहिर हो रहा है, यह भी कहना मुश्किल है। फिर भी जब लोग इन आवाज़ों को सुनने और आवाज़ें करने वाले इन प्राणियों को देखने में इतनी श्रद्धा दिखा रहे हैं तो मैंने सोचा, अगर मैं अपनी कहानी इन लोगों की भाषा में समझा दूँ तो ये क्यों नहीं सुनेंगे ? यही सोचकर मैंने अपनी बात कहने का साहस बटोर लिया।

दो


हमारे घर में एक नौकरानी रहती थी। उसका नाम था बुच्ची। जब वह दस साल की थी तभी से वह हमारे घर में काम करती रही। मैंने सुना, तब तक उसकी शादी भी हो चुकी थी। जब मैं पैदा हुआ तब तक वह तीन बच्चों की माँ भी बन गयी थी। कहते हैं कि मुझे वह बहुत प्यार करती थी, मुझे अपनी बाँहों में उठाकर घुमाती थी, खिलाती थी, और प्यार से चूम लिया करती थी। सुना कि वह मुझे गोद में लेकर दूध भी पिलाया करती थी। मुझे बुच्ची के पति की अब भी याद है। उसको हम बुचुवा कहा करते थे और उसे भूत समझकर हम उससे भागा करते थे। तब तक मैं चार साल पूरा करके पाँच साल का हो चुका था।

उसकी आवाज सुनते ही मैं पिछवाड़े की ओर भाग जाता था और माँ से लिपट कर रोने लगता। आँगन की ओर जाने से मैं डर जाता। न मालूम, वह कब आ टपके। जैसे वह बुच्ची को मारता है, वैसे मुझे भी मार सकता है। जब वह बुच्ची को मारने लगता था तो मुझे ऐसा लगता था कि वह मुझे ही मार रहा है। मेरी माँ बीच में दख़ल देकर कुछ कहती तो वह उनको भी जवाब देता और मेरी माँ मुझे लेकर पिछवाड़े में चली जाती। बुच्ची सिर्फ़ हमारे घर में ही नहीं, और कई जगह काम किया करती थी। मुझे बुच्ची की बाँहों में, अपने माँ-बाप की बाहों से भी ज़्यादा सुख मिला करता था उसकी आवाज़ सुनते ही मैं बाँहें उठाता और उसकी बाँहों में ऐसे बैठ जाता था जैसे किसी मुलायम गद्दी पर।
एक दिन बुच्ची मुझे बाँहों में उठा कर इधर-उधर घूम रही थी। मैं उससे कुछ पूछ रहा था, लेकिन वह कुछ बोल नहीं रही थी। मुझे गुस्सा आया, मैंने ज़ोर से आवाज़ दी। ‘‘हाँ, बेटा’’, कहकर बुच्ची मानो मेरी आवाज़ को टोक रही थी। बुच्ची के पैरों में ज़ोर से लिपट कर मैं भी उसके साथ रोने लगा।

पहले मुझे आदमियों की आवाज़ों से डर ही लगा करता था। उस डर के मारे मैं माँ के पास जाकर उनको ज़ोर से पकड़कर रोया करता था, तब जाकर मेरा मन कुछ हलका हुआ करता था। बुच्ची की रोने की आवाज़ सुनकर जब मैं भी रोता था तब दिल को कुछ आराम मिलता था। हमारा दिमाग़ शायद तभी कुछ काम करने लगता है जब उसे धक्का लग जाता है। मैं सोचता हूँ, सोचने वाले दिमाग़ में ही जीने की आशा बनी रहती है।

बड़ा होकर अब मैं सोचने लगता हूँ तो बुच्ची की ज़िन्दगी कुछ मेरी समझ में आती है। वह काफ़ी डील-डौल वाली औरत थी। अपने शरीर के सुन्दर गठन के अनुरूप ही वह ठाठ से चलती फिरती थी। सबसे खुलकर बात करती थी। दुराव-छिपाव से वह बिलकुल अपरिचित थी। काफ़ी नरम दिल वाली थी। दूसरों की सेवा करने में वह बड़ी रुचि लेती थी और थोड़े में सन्तुष्ट होने वाली सीधी-सादी औरत थी। जो भी मिल जाए उसी से वह खुश हो जाती। भूख चाहे कितनी भी लगे, वह चुपचाप सह लेती थी, पेट की कभी न मिटने वाली ज़रूरतों की शिकार नहीं थी। उसके पति ने उसे उसकी सन्तान से अलग करने की लाख कोशिश की, पर माँ होने के नाते वह अपने दायित्व को बराबर निभाती रही। जब वह शराब के नशे में आकर उसे मारने-पीटने लगता और उसे शक्क़ी नज़र से देखता तो भी वह कुछ नहीं बोलती थी मानो उसका इससे कोई वास्ता न हो। वह बहुत मेहनत करती थी और पसीना बहाकर अपनी ज़िन्दगी गुजारती थी।

उसका बड़ा लड़का अक़्सर मेरे पिताजी के यहाँ पढ़ने-लिखने आया करता था। बुचुवा उसे कभी-कभी ज़बरदस्ती घसीट कर ले जाया करता था। पर बुच्ची उसे फिर बुला लाती और अनुनय-विनय करके पिताजी के यहाँ बिठाकर चली जाती।
पियक्कड़, शक्क़ी और शरारती बुचुवा जब तक ज़िन्दा रहा, बहुत हल्ला मचाता रहा और आख़िर एक दिन इस दुनिया से हमेशा के लिए चल बसा। जब उसका देहान्त हुआ तब भी बुच्ची जवानी में थी। अपने मालिक मालकिन की सद्भावनाओं के बल पर वह पहले की तरह लोगों की सेवा में बराबर लगी रहती थी।

कुछ दिन पहले वह मुझे देखने आयी तो उसमें वही प्यार, वही आत्मीयता और वही विनम्रता दिखाई पड़ी। उसका बड़ा लड़का पुलिस में थानेदार बन गया है। बाक़ी तीन बच्चे भी किसी में लग गये हैं। चारों बेटे माँ को देवी मानकर उसकी पूजा करते हैं। अपनी माँ की बात वे सिर-आँखों पर रखकर उसका आदर करते हैं। अपने बच्चों पर उसे नाज़ है। सारी बातें मेरी माँ के सामने कहकर उसने अन्दर ही गर्व का अनुभव किया।
बुच्ची के चले जाने का बाद माँ ने कहा, ‘‘छोटी जाति की होते हुए भी इसकी नीयत कितनी साफ़ है। कुल-मर्यादा इसी नीयत पर निर्भर रहती है। छोटी-छोटी मुसीबतें उस पर कोई असर नहीं कर पातीं।

   

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book